सोमवार, 8 मार्च 2010

अच्‍छे काम की जरूरत

पहाड़ियों के बीच एक छोटा सा गाँव था। गाँव में बसंत के आसपास पेड़ों के पुराने पत्ते झड़ जाते और सड़कों पर कचरा जमा हो जाता। पत्ते तालाबों में भी तैरते रहते। पूरे शहर में कचरा ही कचरा नजर आता।

ऐसे में गाँव के नगर पालिका सदस्यों ने तय किया कि इस काम के लिए किसी को नियुक्त कर लेना चाहिए ताकि वह रोजाना सफाई का काम देखे।

कुछ ही दिनों में इस काम के लिए एक बूढ़े व्यक्ति को नियुक्त कर दिया गया। बूढ़ा अपने काम के प्रति ईमानदार था। वह दिनभर काम में लगा रहता।

बूढ़ा रोजाना सड़कों की सफाई करता, तालाब की सुंदरता का खयाल रखता और पेड़ों की सलीके से काँट-छाँटकर करता। देखते ही देखते उसने पूरे कस्बे की शक्ल सुधार दी। बूढ़े की देखरेख में कस्बा दिनोंदिन निखरता गया।

कुछ ही महीनों में कस्बा इतना सुंदर हो गया। कई पंछी वहाँ आने लगे। पर्यटक भी अपनी छुट्‍टियाँ बिताने के लिए कस्बे में रुकना पसंद करने लगे। कस्बे की नगर पंचायत को सुंदरता के लिए कई पुरस्कार मिले और कस्बे की आय में भी बढ़ोतरी हुई।

इसके बाद काउंसिल की एक बैठक और हुई। इसमें किसी सदस्य की नजर बूढ़े को दी जाने वाली तनख्वाह पर पड़ी। उसे यह खर्च अनुपयुक्त लगा। वह बोला कि गाँव की सफाई के लिए जो आदमी रखा है उस पर बहुत पैसा खर्च हो रहा है। बाकी सदस्यों ने इसमें हाँ मिलाई और बूढ़े को काम से हटाने का निर्णय ‍ले लिया गया।

अगले दिन से बूढ़े को काम पर से हटा दिया गया। बूढ़े ने अपने लिए कुछ और काम ढूँढ लिया।

बूढ़े ने जिस दिन से अपना काम बंद कर दिया। उसके कुछ दिनों तक तो कोई खास फर्क दिखाई नहीं दिया। पर महीने, दो महीने में कस्बे की हालत ‍फिर से पहले जैसी हो गई। लोगों ने देखा कि पेड़ों के पत्तों से सड़कें अटी पड़ी हैं। तालाबों में कचरा जमा हो गया है। पंछियों ने इस तरफ आना छोड़ दिया और पर्यटकों का आना भी बंद हो गया है। अचानक कस्बे की रौनक चली गई है।

काउंसिल ने फिर से बैठक की। सभी ने स्वीकार किया कि उस बूढ़े व्यक्ति ने ही इस कस्बे को सुंदर बनाया था। सदस्यों ने माना कि उनसे गलती हुई। उन्हें उस भले आदमी की कद्र करना चाहिए थी। कुछ दिनों बाद उस बूढ़े को फिर से उसके काम पर रख लिया गया। इस बार उसकी तनख्वाह भी पहले से बढ़ा दी गई।

सीख : ठीक ही कहा गया है अच्‍छे काम की जरूरत दुनिया में हमेशा बनी रहेगी। लोग भले शुरुआत में अच्छे काम को नहीं पहचानें, पर देर-सबेर अच्छा काम अपनी जगह खुद बना लेता है।

बुधवार, 27 जनवरी 2010

सत्य मेव जयते

न्यायालय में न्याय अपनी कुर्सी पर बैठकर निर्णय करने जा रहा था | दर्शकों से अदालत खचाखच भरी हुई थी | आज एक अनूठे मुकदमे की सुनवाई होने वाली थी |
वादी के कटघरे में विश्वासपूर्ण मुद्रा लिए सत्य प्रविष्ट होकर बोला -- " न्यायमूर्ते ! मैंने प्रतिवादी को अपना समस्त राज्य दान में दे दिया है , परन्तु वह स्वीकार नहीं करना चाहता | मेरे राज्य का उपयोग करने के लिए उसे बाध्य किया जाय | "
लोगो की निगाहे प्रतिवादी के कटघरे की और घूम गई | भगवे वस्त्रों में ब्रहस्पति की भांति सुशोभित होते हुए त्याग ने प्रतिवाद किया -- " परन्तु महाराज ! वादी ने वह दान अपनी स्वप्नावस्था में किया है , जिसे कैसे स्वीकार किया जा सकता है ?"
सत्य- - "भगवन ! मै सदैव देता आया हूँ, लेता कुछ नहीं | यह मेरी सांस्कृतिक परम्परा है | प्रतिवादी स्वप्न के बहाने दान करना चाहता है | ऐसी फिसलनो और बहनों में मै बह सकता हूँ ऐसी मान्यता प्रतिवादी के मन में है | यह मेरा मूल्यांकन किया जा रहा है | इसे मै अपना अपमान मानता हूँ | मैंने वचन दे दिया है,फिर वह चाहे स्वप्न में ही क्यों न हो | मेरी परम्परा ने अपने ही नहीं , सृष्टि और ईश्वर के स्वप्न सच्चे किये है | मेरी निगाहों में स्वप्न सत्य है किन्तु सत्य स्वप्न नहीं | त्याग ने मेरे यहाँ बड़े सोभाग्य से अतिथि बनना स्वीकार किया है फिर चाहे उसने बेहोशी में ही मेरा द्वार क्यों न खटखटाया हो | मेरे द्वार पर त्याग अभ्यागत बनकर आया है , उसे निराश लौटने पर इतिहास मुझ पर लज्जित होगा | त्याग के आतिथ्य-सत्कार का सर्वप्रथम मेरा और एक मात्र मेरा अधिकार है |
बीच में ही सरकारी वकील बोल उठा - " यह अहंकार है , वादी से उसकी कीमत मांगी जाय |
प्रतिवादी ने हाँ में हाँ मिलाते कहा -- " हाँ महाराज ! यदि वादी को इतना अहंकार है तो अपने दान की मै दक्षिणा चाहता हूँ |"
विजयभरी मुस्कान में सत्य ने नम्रतापूर्वक कहा- " स्वीकार है | दक्षिणा में आपको दस लक्ष स्वर्ण मुद्राए ....|"
प्रतिवादी -- " परन्तु मुद्राएँ तो राज्य की जिसे वादी ने पहले ही मुझे दे दिया है |"
वादी -- " तो यह लो ! मै डोम के घर बिकता हूँ ,मेरी महारानी ब्रह्मण के यहाँ सेवावृति करेगी , मेरा राजकुमार पंचतत्व को प्राप्त हो गया है | यह देखो , मै कफ़न का आधा हिस्सा और श्मशान शुल्क का एक टका मांग रहा हूँ | मै अपना हिस्सा लेकर ही रहूँगा अन्यथा रोहताश का दाह संस्कार नहीं होने दूंगा ! हाँ! हाँ ! हाँ ! मै उसकी साडी का भी आधा हिस्सा ले रहा हूँ क्योकि यही तो उसका कफ़न है | कर्तव्य के समक्ष स्त्री का स्नेह और पुत्र की ममता मुझे नहीं डिगा सकती | अभी तो क्या हुआ, श्मशान का टका बाकी है - क्या अब भी तुम्हारी दक्षिणा नहीं चुकी |"
प्रतिवादी चुप हो गया | उसने आँखे नीचे की और झुका ली | सरकारी वकील बगलें झाँकने लगा और न्याय ने उठते हुए फैसला दिया - " सत्यवादी राजा हरीशचंद्र की जय हो |"
अदालत उठ गयी | दर्शक कानाफूसी करते हुए जा रहे कि वह एक क्षत्रिय था |
चित्रपट चल रहा था और द्रश्य बदलते जा रहे थे |

आत्मविश्वास

आत्मविश्वास ही जीवन को मनभावन रंगों से श्रृंगारित करता है। जिसे स्वयं पर विश्वास नहीं उसके जीवन में सुख का अहसास नहीं। जीवन की शानदार उपलब्धियाँ आत्मविश्वास के बल पर अर्जित की जाती हैं।

व्यक्तित्व का बहुरंगी विकास विश्वास की बुनियाद पर टिका होता है। जिसमें आत्मबल नहीं उसके लिए जीवन मुसीबतों का पहाड़ है। आत्मविश्वास मन को शक्ति के एहसास और तन को ऊर्जा से भर देता है। जमाने की सारी मुश्किलें हौसलामंद व्यक्ति के आगे नतमस्तक हो जाती हैं।

दुर्बल आत्मा मनुष्य पलायनवादी होता है। वह स्वयं और संसार की नजर में दीन-हीन होकर जीता है जबकि आत्मविश्वासी व्यक्ति आशावान और आस्थावान होता है। परम पिता परमेश्वर के प्रति आस्थाभाव जीवन को आनंदमयी अनुभूति से अभिभूत कर देता है। आस्थावान मनुष्य यह भलीभाँति जानता है कि हम उस अलौकिक शिल्पकार की वे सुंदर रचनाएँ (संतानें) हैं जिनकी अंतरात्मा में खूबियों का खजाना है। चिंतन की स्निग्धधारा आंतरिक सौंदर्य को निखारती है, जबकि चिंता की कारा काहिल मनुष्य को ताउम्र जकड़े रहती है। श्रद्धा और विश्वास से भरा व्यक्ति न तो निराश होता है और न ही हताश। वह स्वयं आगे बढ़ता है और प्रतिनिधित्व कर दूसरों का दिग्दर्शन करता है। अपनी क्षमताओं पर भरोसा ही व्यक्तित्व में स्वाभिमान का रंग भरता है। आत्मशक्ति से परिचित मनुष्य खुशामद और चापलूसी से कोसों दूर रहता है। श्रद्धारहित व्यक्ति शंकालु होता है। हर चीज को शंका की नजर से देखने वाला अविश्वासी मनुष्य जीने का हुनर नहीं जानता, जबकि विश्वासी मनुष्य जीवन शिद्दत और सलीके से जीता है। अपने पर अविश्वास एक भयंकर मानसिक रोग है, जबकि आत्म संबल खुशहाली का सुनहरा संदेश है। आत्मशक्ति की कमी व्यक्ति को परामुखापेक्षी बना देती है। कहा गया है- 'किसी की मेहरबानी माँगना अपनी आजादी बेचना है।' गोस्वामी तुलसीदासजी ने लिखा भी है- 'पराधीन सपनेहूँ सुख नाहि।' खुद पर यकीन ही आत्म-उत्कर्ष की आधारशिला है।

सपूत

पुराने जमाने की बात है। तब आज की तरह पानी के लिए नल और बोरिंग जैसी सुविधा नहीं थी। सिर पर कई घड़ों का भार लिए स्त्रियाँ कई किलोमीटर दूर तक जाकर कुओं या बावड़ियों से पानी भर कर लाती थीं। एक बार इसी तरह तीन महिलाएँ घर की जरूरत के लिए पानी भरकर ला रही थीं। तीनों ने आपस में बातचीत प्रारम्भ की। पहली महिला ने कहा- 'मेरा पुत्र बहुत बड़ा विद्वान है। सभी शास्त्रों का विषद ज्ञान रखता है। देश भर के विद्वान उसकी धाक मानते हैं। आज तक कोई भी उसे शास्त्रार्थ में नहीं हरा सका है।'

दूसरी महिला भी कहाँ पीछे रही, 'हाँ, बहन पुत्र यदि विद्वान हो तो पूरा वंश गौरवान्वित होता है। मेरा पुत्र भी बहुत चतुर है। व्यवसाय में उसका कोई सानी नहीं। उसके व्यवसाय संभालने के बाद व्यापार में बहुत प्रगति हुई है।'

तीसरी महिला चुप ही रही। उसे चुप देखकर बाकी दोनों महिलाओं ने कहा, 'क्यों बहन, तुम अपने पुत्र के बारे में कुछ नहीं कह रही उसकी योग्यता के बारे में भी तो हमें कुछ बताओ।'

तीसरी महिला ने उत्तर दिया, 'क्या कहूँ बहन, मेरा पुत्र बहुत ही साधारण युवक है। अपनी शिक्षा के अलावा घर के काम काज में अपने पिता का हाथ बँटाता है। कभी-कभी जंगल से लकड़िया भी बीन कर लाता है।'

अभी वे तीनों महिलाएँ थोड़ी दूर ही चली थीं की दोनों महिलाओं के विद्वान और चतुर पुत्र साथ जाते हुए रास्ते में मिल गए। दोनों महिलाओं ने गदगद होते हुए अपने पुत्र का परिचय कराया। बहुत विनम्रता से उन्होंने तीनों माताओं को प्रणाम किया और अपनी राह चले गए। उन्होंने कुछ दूरी ही तय की ही थी कि अचानक तीसरी महिला का पुत्र वहाँ आ पहुँचा।

उसके पास आने पर बहुत संकोच के साथ उस तीसरी महिला ने अपने पुत्र का परिचय दिया। उस युवक ने सभी को विनम्रता से प्रणाम किया और बोला, 'आप सभी माताएँ इस तपती दुपहरी में इतनी दूरी तय कर आई हैं। लाइए, कुछ बोझ मैं भी बँटा दूँ।' और उन महिलाओं के मना करते रहने के बावजूद उन सबसे एक-एक पानी का घड़ा लेकर अपने सिर पर रख लिया। अब दोनों माताएँ शर्मिंदा थीं।

वाणी

वाणी की देवी ‍वीणावादिनी माँ सरस्वती है। कहते हैं कि श्रेष्ठ विचारों से सम्पन्न ‍व्यक्ति की जुबान पर माँ सरस्वती विराजमान रहती है। बोलने से ही सत्य और असत्य होता है। अच्छे वचन बोलने से अच्छा होता है और बुरे वचन बोलने से बुरा, ऐसा हम अपने बुजुर्गों से सुनते आए हैं। बोलना हमारे सामाजिक जीवन की निशानी है। हमारे मानव होने की सूचना है। बोलने से ही हम जाने जाते हैं और बोलने से ही हम विख्यात या कुख्‍यात भी हो सकते हैं। एक झूठा वचन कई लोगों की जान ले सकता है और एक सच्चा वचन कई लोगों की जान बचा भी सकता है। जैन, बौद्ध और योग दर्शन में सम्यक वाक के महत्व को समझाया गया है। सम्यक वाक अर्थात ना ज्यादा बोलना और ना कम। उतना ही बोलना जितने से जीवन चलता है। व्यर्थ बोलते रहने का कोई मतलब नहीं। भाषण या उपदेश देने से श्रेष्ठ है कि हम बोधपूर्ण जीए, ऐसा धर्म कहता है। वाक का सकारात्मक पक्ष यह है कि इस जग में वाक ही सब कुछ है यदि वाक न हो तो जगत के प्रत्येक कार्य को करना एक समस्या बन जाए। नकारात्मक पक्ष यह कि मनुष्य को वाक क्षमता मिली है तो वह उसका दुरुपयोग भी करता है कड़वे वचन कहना, श्राप देना, झूठ बोलना या ऐसी बातें कहना जिससे की भ्रमपूर्ण स्थिति का निर्माण होकर देश, समाज, परिवार, संस्थान और धर्म की प्रतिष्ठा गिरती हो।आज के युग में संयमपूर्ण कहे गए वचनों का अभाव हो चला है। इस युग को बहुत आवश्यकता है इस बात की कि वह बोलते वक्त सोच-समझ लें कि इसके कितने दुष्परिणाम होंगे या इस का मनोवैज्ञानिक प्रवाभ क्या होगा। सनातन हिंदू धर्म ही नहीं सभी धर्मों में वाक संयम की चर्चा की गई है।